THIS POEM INFUSES OODLES OF POWER AND PASSION IN ME…

सच है महज संघर्ष ही

 
सच हम नहीं, सच तुम नहीं सच है महज संघर्ष ही।

 

संघर्ष से हटकर जिये तो क्या जिये हम या कि तुम।
जो नत हुआ वह मृत हुआ ज्यों वृंत से झरकर कुसुम।
जो लक्ष्य भूल रुका नहीं
जो हार देख झुका नहीं
जिसने प्रणय पाथेय माना जीत उसकी ही रही।
सच हम नहीं, सच तुम नहीं सच है महज संघर्ष ही।

ऐसा करो जिससे न प्राणों में कहीं जड़ता रहे।
जो है जहाँ चुपचाप अपने आप से लड़ता रहे।
जो भी पिरिस्थतियाँ मिलें
काँटे चुभें किलयाँ खिलें
हारे नहीं इंसान, है जीवन का संदेश यही।
सच हम नहीं, सच तुम नहीं सच है महज संघर्ष ही।

हमने रचा आओ हमीं अब तोड़ दें इस प्यार को।
यह क्या मिलन, मिलना वही जो मोड़ दे मंझधार को।
जो साथ फूलों के चले
जो ढ़ाल पाते ही ढ़ले
यह जि़न्दगी क्या जि़न्दगी जो सिर्फ पानी सी बही।
सच हम नहीं, सच तुम नहीं सच है महज संघर्ष ही।

संसार सारा आदमी की चाल देख हुआ चकित।
पर झाँककर देखो दृगों में, हैं सभी प्यासे थकित।
जब तक बँधी है चेतना
जब तक हृदय दुख से घना
तब तक न मानूँगा कभी इस राह को ही मैं सही।
सच हम नहीं, सच तुम नहीं सच है महज संघर्ष ही।

अपने हृदय का सत्य अपने आप हमको खोजना।
अपने नयन का नीर अपने आप हमको पोंछना।
आकाश सुख देगा नहीं
धरती पसीजी है कहीं?
जिससे हृदय को बल मिले है ध्येय अपना तो वही।
सच हम नहीं, सच तुम नहीं सच है महज संघर्ष ही। 

 

-जगदीश