क्यूँ विचलित कर जाते हो

जब एकाग्रचित हो मैं स्वप्न बुनता
प्रेम-पथिक बन जाने का
या जग को सुखद बनाने का
इस भंवर-जाल में तुमको ढूंढ़ता
या फिर मृग की तृष्णा को
स्वप्न समर्पित करके प्रियतम
जब मैं सुंदर घर बनाता
भावों के सागर में जब
डूब कर फिर उतराता रहता
तिल-तिल मैं जल कर जब
सहर्ष तुमको उजाला देता
निश्चल मेरा मन निरंतर
इन कर्मों से गीता लिखता
तब तुम मेरे प्रियवर
क्यूँ विचलित कर जाते हो
साँसों में जब बस चुके हो
ख्वाबों में क्यूँ आ जाते हो

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